सामाजिक >> रानी कैकेयी का सफरनामा रानी कैकेयी का सफरनामाप्रभात कुमार भट्टाचार्य
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उज्जैन से टाटानगर के करीब चालीस घण्टों के सफर का सफरनामा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘लेकिन अगर तुम सब पकड़े गए ?’’
‘‘हमें कोई अफसोस नहीं होगा।’’
‘‘लेकिन तब तुम्हारी बग़ावत का क्या होगा ?’’
‘‘दूसरे लोग आगे आएंगे।’’
‘कौन होंगे ये दूसरे लोग ?’’
‘‘हमें नहीं मालूम।’’
‘‘बस इसी दम पर बग़ावत करने पर उतारू हो ?’’
‘‘जी हाँ, हमारे लिए इतना ही काफी है कि हम अपनी तरफ़ से एक पत्थर, खूब तबियत से उछाल दें पानी की ठहरी हुई सतह पर, और सिर्फ एक लहर पैदा कर दें। हम जानते हैं, एक लहर खुद-ब-खुद दूसरी लहर पैदा करेगी और फिर आएगा लहरों का रेला। भाई साहब, लहरों के उस रेले में अगर पहली लहर खो जाती है तो क्या फर्क पड़ता है !’’
रानी कैकेयी का सफरनामा
‘‘अरे तू तो रोने लगा !’’
‘‘क्या करूँ ? तुम तो बात-बात पर आपे से बाहर हो जाते हो। जभी तो अपनी यह दुर्दशा कर ली है तुमने। थोड़ा समझ से काम लो। मानता हूँ, तुमको ईश्वर ने इतनी ताकत दी है कि तुम मतवाले हाथी से भी भिड़ सकते हो। लेकिन तुम जितनी भी अपनी ताकत पर भरोसा रखोगे और भी ज्यादा मुश्किल कैद में फँसा लिए जाओगे। और राजा भैया, तुम अगर कैद में ही रहोगे, तो फिर सोचो, हमारी क्या हालत होगी ? इसलिए कहता हूँ, अपनी ताकत सम्हालकर रखो और समझ से काम लो। जरा सोचों तो। हमने यह माना कि तुम पर राजा बिदेसिया ने बहुत जुलम किए हैं, लेकिन तुम भी तो अनाप-शनाप जुल्म कर रहे हो।’’
‘‘मैंने किस पर जुल्म किया ?’’
‘‘यह तुम कह रहे हो, राजा भैया ? तुम हर रोज एक गरीब लठैत को मार डालते हो-यह जुल्म नहीं है ?’’
‘‘वे स्याले तो राजा बिदेसिया के कुत्ते हैं।’’
‘‘कैसी बात कर रहे हो, राजा भैया ? ये बेचारे लठैत अपने पेट की खातिर राजा बिदेसिया की नौकरी कर रहे हैं। अगर इनके साथ थोड़ा अच्छा बर्ताव करो और अपनी समझ से थोड़ा काम लो, तो ये ही, जो आज बिदेशिया के लठैत हैं, कल तुम्हारे गुलाम बन सकते हैं।’’
‘‘समझ से कैसे काम लूँ रे ? सारी जिन्दगी मस्ती में गुजारी है। कभी कोई फिकर नहीं पाली हमने। समझ का सारा काम मेरी रनिया करती रही है।’’
‘‘तो सुनो, अब तुम्हें समझ से काम लेना है। हमारी बड़ी बाई यानी अपनी रेलारानी की खातिर।’’
‘‘तू जैसा कहेगा, वैसा ही करूँगा।
‘‘हमें कोई अफसोस नहीं होगा।’’
‘‘लेकिन तब तुम्हारी बग़ावत का क्या होगा ?’’
‘‘दूसरे लोग आगे आएंगे।’’
‘कौन होंगे ये दूसरे लोग ?’’
‘‘हमें नहीं मालूम।’’
‘‘बस इसी दम पर बग़ावत करने पर उतारू हो ?’’
‘‘जी हाँ, हमारे लिए इतना ही काफी है कि हम अपनी तरफ़ से एक पत्थर, खूब तबियत से उछाल दें पानी की ठहरी हुई सतह पर, और सिर्फ एक लहर पैदा कर दें। हम जानते हैं, एक लहर खुद-ब-खुद दूसरी लहर पैदा करेगी और फिर आएगा लहरों का रेला। भाई साहब, लहरों के उस रेले में अगर पहली लहर खो जाती है तो क्या फर्क पड़ता है !’’
रानी कैकेयी का सफरनामा
‘‘अरे तू तो रोने लगा !’’
‘‘क्या करूँ ? तुम तो बात-बात पर आपे से बाहर हो जाते हो। जभी तो अपनी यह दुर्दशा कर ली है तुमने। थोड़ा समझ से काम लो। मानता हूँ, तुमको ईश्वर ने इतनी ताकत दी है कि तुम मतवाले हाथी से भी भिड़ सकते हो। लेकिन तुम जितनी भी अपनी ताकत पर भरोसा रखोगे और भी ज्यादा मुश्किल कैद में फँसा लिए जाओगे। और राजा भैया, तुम अगर कैद में ही रहोगे, तो फिर सोचो, हमारी क्या हालत होगी ? इसलिए कहता हूँ, अपनी ताकत सम्हालकर रखो और समझ से काम लो। जरा सोचों तो। हमने यह माना कि तुम पर राजा बिदेसिया ने बहुत जुलम किए हैं, लेकिन तुम भी तो अनाप-शनाप जुल्म कर रहे हो।’’
‘‘मैंने किस पर जुल्म किया ?’’
‘‘यह तुम कह रहे हो, राजा भैया ? तुम हर रोज एक गरीब लठैत को मार डालते हो-यह जुल्म नहीं है ?’’
‘‘वे स्याले तो राजा बिदेसिया के कुत्ते हैं।’’
‘‘कैसी बात कर रहे हो, राजा भैया ? ये बेचारे लठैत अपने पेट की खातिर राजा बिदेसिया की नौकरी कर रहे हैं। अगर इनके साथ थोड़ा अच्छा बर्ताव करो और अपनी समझ से थोड़ा काम लो, तो ये ही, जो आज बिदेशिया के लठैत हैं, कल तुम्हारे गुलाम बन सकते हैं।’’
‘‘समझ से कैसे काम लूँ रे ? सारी जिन्दगी मस्ती में गुजारी है। कभी कोई फिकर नहीं पाली हमने। समझ का सारा काम मेरी रनिया करती रही है।’’
‘‘तो सुनो, अब तुम्हें समझ से काम लेना है। हमारी बड़ी बाई यानी अपनी रेलारानी की खातिर।’’
‘‘तू जैसा कहेगा, वैसा ही करूँगा।
अपनी बात
‘‘रानी कैकेयी का सफरनामा’’ मेरा पहला उपन्यास
है। उज्जैन से टाटानगर के करीब चालीस घण्टों के सफर में ही इस
‘‘सफरनामा’’ का सफर शुरू हुआ था। बात 1977 की है।
चूँकि पत्नी के इलाज के लिए हमें टाटानगर में एक माह ठहरना था, इसलिए मन
ही मन कुछ-न कुछ लिखने की योजना बना रहा था। तीन नाटकों का पहला आलेख
तैयार था, इसलिए इसी उधेड़बुन में था कि इनमें से किस नाटक का पुनर्लेखन
करूँ। ये नाटक थे आदम और आदम, रात ठहरी हुई और चर्चा नगरी। लेकिन चालीस
घण्टों का सफर कुछ इस तरह मन पर हावी हुआ कि ‘‘रानी कैकेयी का
सफरनामा’’ का खाका उभरने लगा। और टाटानगर पहुँचते ही
मैंने इसे लिखना शुरू कर दिया। टाटानगर के एक महीने के प्रवास में ही यह उपन्यास
पूरा हो गया। मेरी बड़ी दीदी (सविता)और बड़े जीजा (गौरी दा) बहुत खुश थे
कि उनके घर में रहते हुए मैंने अपना पहला उपन्यास लिखा। गौरी दा चाहते थे
कि मैं यह उपन्यास तुरन्त प्रकाशित करवाऊँ। मगर ऐसा होना जो न था।
देखते-देखते चौदह वर्ष गुजर गये।
पिछले चौदह वर्षों में कई अवसर ऐसे आए जब मैं इस उपन्यास को लेकर बैठा और इसके किसी न किसी हिस्से पर दोबारा गौर कर गया। मगर प्रकाशन के लिए सम्पूर्ण पुनर्लेखन का काम स्थगित ही होता रहा।
अपने काव्य-नाटक-त्रयी ‘‘मुक्तिकथा’’ (काठमहल, प्रेतशताब्दी, आगामी आदमी) के प्रकाशन के बाद मैं इस उपन्यास के पुनर्लेखन में जुट गया। मगर व्यवधानों का सिलसिला भी जारी रहा। और आखिरकार उसका पुनर्लेखन सम्पन्न हुआ।
अपने इस उपन्यास के बारे में अलग से कुछ भी नहीं कहना चाहता। जो कुछ मुझे कहना है, वह तो उपन्यास में ही कह चुका हूँ। अलग से कुछ टिप्पणी करने का अर्थ, कम से कम मुझे को ऐसा ही लगता है जैसे मैं अपने उपन्यास के लिए विज्ञापन की सामग्री लिख रहा हूँ।
हाँ अपने एक दोस्त की चर्चा जरूर करना चाहूँगा।
बात 1961 की है। उन दिनों हम सात लोग मिलकर एक हिन्दी मासिक पत्रिका के उज्जैन से प्रकाशन में लगे हुए थे। पत्रिका का नाम था ‘‘कालिदास’’ और हम सात लोग थे। भगवती शर्मा, शिव शर्मा, कौशल मिश्र, गोपाल मूँदड़ा, हरीश निगम, गय्यूर कुरेशी और मैं। ‘‘कालिदास’’ के एक के बाद एक कुल तीन अंक तो जैसे तैसे प्रकाशित हो गये। मैं इस पत्रिका का सम्पादक था। शिवशर्मा, कौशल मिश्र, और हरीश निगम सहयोगी सम्पादक थे। गोपाल मूँदड़ा प्रबन्ध सम्पादक और भगवती शर्मा प्रकाशक थे। गय्यूर कुरेशी, जो सम्प्रति मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं, उन दिनों वकालत करते थे। उन्होंने अपना कार्यालय ‘‘कालिदास’’ के सम्पादकीय-प्रकाशकीय कार्यालय के लिए दे रखा था। वे रुपयों से भी हमारी मदद करते थे।
भगवती शर्मा, जो सम्प्रति एक प्रतिष्ठित वकील और ख्यातनामा रंगकर्मी हैं, ने एक दिन कालिदास कार्यालय में मेरा परिचय अपने बचपन के दोस्त श्याम व्यास से करवाया। श्याम व्यास जिला सूचना अधिकारी के रूप में स्थानान्तरित होकर उन्हीं दिनों उज्जैन आए थे। एक कथाकार के रूप में उनके नाम से मैं पहले से ही परिचित था। और परिचय के पहले दिन से ही श्याम व्यास ने कालिदास के सम्पादन में जो विशिष्ट सहयोग दिया, उसी के फलस्वरूप ‘‘कालिदास’’ उस समय बहुचर्चित हुआ। कालिदास के प्रथम अंक में ही श्याम व्यास के उपन्यास ‘‘साढ़े बारह तालाब और एक प्यासा’’ का क्रमशः प्रकाशन शुरू हुआ था। श्याम व्यास का यह उपन्यास, ‘‘एक प्यासा तालाब’’ के नाम के बाद में राजकमल से प्रकाशित हुआ था।
जिस ध्रूमधाम से ‘‘कालिदास’’ का प्रवेशांक प्रकाशित हुआ, उसी महत्वाकांक्षी प्रकाशन-व्यवस्था को जैसे-तैसे बनाए रखते हुए हम ‘‘कालिदास’’ के कुल तीन अंक प्रकाशित करने में सक्षम हुए।
कालिदास के चौथे अंक सामग्री संग्रहीत हो चुकी थी। मगर उसके प्रकाशन-पथ पर जो आर्थिक बाधा थी, वह इतनी गम्भीर थी कि हम बाजार में हुई अपनी उधारी से मुँह छिपाते फिर रहे थे। माधव महाविद्यालय, उज्जैन में राजनीति विज्ञान के व्याख्याता पद पर रुपये दो सौ नब्बे प्रतिमाह वेतन पर कार्य करते हुए, और अपनी नयी-नयी गिरस्ती जमाने की कोशिश में मेरी जो नितान्त स्वल्प आर्थिक स्थिति थी, वह ‘‘कालिदास’’ प्रकाशन के उत्साहातिरेक में दयनीय हो उठी थी। भगवती शर्मा ने भी उन्हीं दिनों नगर पालिका की नौकरी छोड़कर वकील बनने के चक्कर में अपनी टुटही साईकिल बेचकर, अपनी गिरस्ती की हिचकोले खाती हुई गाड़ी गिरते-पड़ते खींचते हुए, सिगरेट से बीड़ी पर दम साधने की जो कोशिश उन्होंने की तो वे भी गरीबी की रेखा से नीचे उतरने की स्थिति में लगभग पहुँच चुके थे। शिव शर्मा, कौशल मिश्र, हरीश निगम और गोपाल मूँदड़ा में उड़ान भरने का इस कदर अदम्य उत्साह था कि आसमान में छेद कर दें। मगर इनमें से किसी के पैरों तले, उन दिनों, जमीन या तो थी ही नहीं, और यदि थी भी तो वह इतनी भर थी कि उस पर जैसे-तैसे खड़े रह सकें। एक गय्यूर कुरेशी ही ऐसे थे जो दम मार सकते थे, लेकिन आखिर कब तक। वे कोई धन्नासेठ तो थे नहीं। उनकी भी घर-गिरस्ती थी और साथ ही था एक क्षितिज-राजनीतिक भविष्य का। वे विधायक निर्वाचित भी हुए। जाहिर है, वे अपनी थैली हमेशा के लिए खुली नहीं रख सकते थे। लिहाजा चौथा अंक अटक पड़ा था विषम आर्थिक संकट में।
ऐसे में मुझे एरियर का एक चेक मिला रुपये बाहर सौ का। उन दिनों बारह सौ रुपये, बड़ी राशि हुआ करती थी, कम से कम जैसे मुदर्रिस के लिए। मैं गदगदायमान हुआ कि चलो, आगामी दो अंकों के लिए आवश्यक धनराशि जुट गई है। मेरा और श्याम व्यास का रोज का उठना-बैठना था। वे उसी दिन मिले और मैंने उन्हें यह खुशखबरी दी।
वे बोले-यह चेक तुम मेरे पास रख दो ताकि मैं अपनी पत्रिका के खर्च में थोड़ी कटोती कर सकूँ और दो के बजाय इसके तीन अंक निकल जाएँ।
मैंने फौरन श्याम व्यास के हाथ में चेक रख दिया। चेक बियरर था। श्याम व्यास ने तुरन्त चेक भुनाया और बाजार में घूमघूम कर मेरी सारी उधारियाँ चुका दीं। दूसरे दिन जब हम मिले तो उन्होंने पत्रिका सम्बन्धी चर्चा दरकिनार कर मेरे हाथ में उधारी-चुकता की सारी रसीदें रख दीं।
और बोले-अब न कोई उधारीवाला तुम्हारे घर आएगा और न ही तुम बाजार से मुँह छिपाते फिरोगे।
मै निहाल हो गया। यह और बात है कि उस दिन मैं बेतरह बौखला उठा था और श्याम व्यास पर बरसता रहा था जिसे झेलने के लिए और मेरी नादान भावुकता पर तरस खाने के लिए वे विवश थे।
‘‘कालिदास’’ के बन्द हुए तीन वर्ष गुजर चुके हैं। क्या पता वह फिर कभी प्रगट होगा या नहीं। कितनी कुछ बदल चुका है इन गुजरे हुए वर्षों में। मगर श्याम व्यास वैसे ही, और उतने ही जेनुइन आज भी हैं जितने तीस वर्षों पहले थे।
उसी उपन्याकार और जेनुइन श्याम व्यास को मेरा यह पहला उपन्यास ‘‘रानी कैकेयी का सफरनामा’’ समर्पित है।
पिछले चौदह वर्षों में कई अवसर ऐसे आए जब मैं इस उपन्यास को लेकर बैठा और इसके किसी न किसी हिस्से पर दोबारा गौर कर गया। मगर प्रकाशन के लिए सम्पूर्ण पुनर्लेखन का काम स्थगित ही होता रहा।
अपने काव्य-नाटक-त्रयी ‘‘मुक्तिकथा’’ (काठमहल, प्रेतशताब्दी, आगामी आदमी) के प्रकाशन के बाद मैं इस उपन्यास के पुनर्लेखन में जुट गया। मगर व्यवधानों का सिलसिला भी जारी रहा। और आखिरकार उसका पुनर्लेखन सम्पन्न हुआ।
अपने इस उपन्यास के बारे में अलग से कुछ भी नहीं कहना चाहता। जो कुछ मुझे कहना है, वह तो उपन्यास में ही कह चुका हूँ। अलग से कुछ टिप्पणी करने का अर्थ, कम से कम मुझे को ऐसा ही लगता है जैसे मैं अपने उपन्यास के लिए विज्ञापन की सामग्री लिख रहा हूँ।
हाँ अपने एक दोस्त की चर्चा जरूर करना चाहूँगा।
बात 1961 की है। उन दिनों हम सात लोग मिलकर एक हिन्दी मासिक पत्रिका के उज्जैन से प्रकाशन में लगे हुए थे। पत्रिका का नाम था ‘‘कालिदास’’ और हम सात लोग थे। भगवती शर्मा, शिव शर्मा, कौशल मिश्र, गोपाल मूँदड़ा, हरीश निगम, गय्यूर कुरेशी और मैं। ‘‘कालिदास’’ के एक के बाद एक कुल तीन अंक तो जैसे तैसे प्रकाशित हो गये। मैं इस पत्रिका का सम्पादक था। शिवशर्मा, कौशल मिश्र, और हरीश निगम सहयोगी सम्पादक थे। गोपाल मूँदड़ा प्रबन्ध सम्पादक और भगवती शर्मा प्रकाशक थे। गय्यूर कुरेशी, जो सम्प्रति मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं, उन दिनों वकालत करते थे। उन्होंने अपना कार्यालय ‘‘कालिदास’’ के सम्पादकीय-प्रकाशकीय कार्यालय के लिए दे रखा था। वे रुपयों से भी हमारी मदद करते थे।
भगवती शर्मा, जो सम्प्रति एक प्रतिष्ठित वकील और ख्यातनामा रंगकर्मी हैं, ने एक दिन कालिदास कार्यालय में मेरा परिचय अपने बचपन के दोस्त श्याम व्यास से करवाया। श्याम व्यास जिला सूचना अधिकारी के रूप में स्थानान्तरित होकर उन्हीं दिनों उज्जैन आए थे। एक कथाकार के रूप में उनके नाम से मैं पहले से ही परिचित था। और परिचय के पहले दिन से ही श्याम व्यास ने कालिदास के सम्पादन में जो विशिष्ट सहयोग दिया, उसी के फलस्वरूप ‘‘कालिदास’’ उस समय बहुचर्चित हुआ। कालिदास के प्रथम अंक में ही श्याम व्यास के उपन्यास ‘‘साढ़े बारह तालाब और एक प्यासा’’ का क्रमशः प्रकाशन शुरू हुआ था। श्याम व्यास का यह उपन्यास, ‘‘एक प्यासा तालाब’’ के नाम के बाद में राजकमल से प्रकाशित हुआ था।
जिस ध्रूमधाम से ‘‘कालिदास’’ का प्रवेशांक प्रकाशित हुआ, उसी महत्वाकांक्षी प्रकाशन-व्यवस्था को जैसे-तैसे बनाए रखते हुए हम ‘‘कालिदास’’ के कुल तीन अंक प्रकाशित करने में सक्षम हुए।
कालिदास के चौथे अंक सामग्री संग्रहीत हो चुकी थी। मगर उसके प्रकाशन-पथ पर जो आर्थिक बाधा थी, वह इतनी गम्भीर थी कि हम बाजार में हुई अपनी उधारी से मुँह छिपाते फिर रहे थे। माधव महाविद्यालय, उज्जैन में राजनीति विज्ञान के व्याख्याता पद पर रुपये दो सौ नब्बे प्रतिमाह वेतन पर कार्य करते हुए, और अपनी नयी-नयी गिरस्ती जमाने की कोशिश में मेरी जो नितान्त स्वल्प आर्थिक स्थिति थी, वह ‘‘कालिदास’’ प्रकाशन के उत्साहातिरेक में दयनीय हो उठी थी। भगवती शर्मा ने भी उन्हीं दिनों नगर पालिका की नौकरी छोड़कर वकील बनने के चक्कर में अपनी टुटही साईकिल बेचकर, अपनी गिरस्ती की हिचकोले खाती हुई गाड़ी गिरते-पड़ते खींचते हुए, सिगरेट से बीड़ी पर दम साधने की जो कोशिश उन्होंने की तो वे भी गरीबी की रेखा से नीचे उतरने की स्थिति में लगभग पहुँच चुके थे। शिव शर्मा, कौशल मिश्र, हरीश निगम और गोपाल मूँदड़ा में उड़ान भरने का इस कदर अदम्य उत्साह था कि आसमान में छेद कर दें। मगर इनमें से किसी के पैरों तले, उन दिनों, जमीन या तो थी ही नहीं, और यदि थी भी तो वह इतनी भर थी कि उस पर जैसे-तैसे खड़े रह सकें। एक गय्यूर कुरेशी ही ऐसे थे जो दम मार सकते थे, लेकिन आखिर कब तक। वे कोई धन्नासेठ तो थे नहीं। उनकी भी घर-गिरस्ती थी और साथ ही था एक क्षितिज-राजनीतिक भविष्य का। वे विधायक निर्वाचित भी हुए। जाहिर है, वे अपनी थैली हमेशा के लिए खुली नहीं रख सकते थे। लिहाजा चौथा अंक अटक पड़ा था विषम आर्थिक संकट में।
ऐसे में मुझे एरियर का एक चेक मिला रुपये बाहर सौ का। उन दिनों बारह सौ रुपये, बड़ी राशि हुआ करती थी, कम से कम जैसे मुदर्रिस के लिए। मैं गदगदायमान हुआ कि चलो, आगामी दो अंकों के लिए आवश्यक धनराशि जुट गई है। मेरा और श्याम व्यास का रोज का उठना-बैठना था। वे उसी दिन मिले और मैंने उन्हें यह खुशखबरी दी।
वे बोले-यह चेक तुम मेरे पास रख दो ताकि मैं अपनी पत्रिका के खर्च में थोड़ी कटोती कर सकूँ और दो के बजाय इसके तीन अंक निकल जाएँ।
मैंने फौरन श्याम व्यास के हाथ में चेक रख दिया। चेक बियरर था। श्याम व्यास ने तुरन्त चेक भुनाया और बाजार में घूमघूम कर मेरी सारी उधारियाँ चुका दीं। दूसरे दिन जब हम मिले तो उन्होंने पत्रिका सम्बन्धी चर्चा दरकिनार कर मेरे हाथ में उधारी-चुकता की सारी रसीदें रख दीं।
और बोले-अब न कोई उधारीवाला तुम्हारे घर आएगा और न ही तुम बाजार से मुँह छिपाते फिरोगे।
मै निहाल हो गया। यह और बात है कि उस दिन मैं बेतरह बौखला उठा था और श्याम व्यास पर बरसता रहा था जिसे झेलने के लिए और मेरी नादान भावुकता पर तरस खाने के लिए वे विवश थे।
‘‘कालिदास’’ के बन्द हुए तीन वर्ष गुजर चुके हैं। क्या पता वह फिर कभी प्रगट होगा या नहीं। कितनी कुछ बदल चुका है इन गुजरे हुए वर्षों में। मगर श्याम व्यास वैसे ही, और उतने ही जेनुइन आज भी हैं जितने तीस वर्षों पहले थे।
उसी उपन्याकार और जेनुइन श्याम व्यास को मेरा यह पहला उपन्यास ‘‘रानी कैकेयी का सफरनामा’’ समर्पित है।
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